अधिक से अधिक पैदावार हासिल करने के लिए निरंतर प्रयोग किए जा रहे फर्टिलाइजर व रसायन मिट्टी की प्राकृतिक उर्वरकता को समाप्त कर रहे हैं।
आज के दौर की कृषि पद्धति काफी आधुनिक हो गई है। जिस रफ्तार से कृषि में आधुनिकता का समावेश किया जा रहा है उससे किसानों को त्वरित फायदे प्राप्त हो रहे हैं। लेकिन, इन झटपट फायदे के फेर में वे कई दीर्घकालीन समस्याओं को निमंत्रण दे रहे हैं। अधिक से अधिक पैदावार हासिल करने के लिए निरंतर प्रयोग किए जा रहे फर्टिलाइजर व रसायन मिट्टी की प्राकृतिक उर्वरकता को समाप्त कर रहे हैं। मिट्टी की उर्वरकता में गिरावट के चलते ही भूक्षरण जैसी समस्याएं भी सामने आ रही हैं। यही नहीं इस प्रकार की अजैविक खाद अप्रत्यक्ष रूप से भोजन चक्र में शामिल होकर मानव स्वास्थ्य के लिए नुकसानदायक साबित होती है।
फर्टिलाइजर व रसायन से होने वाले इन दुष्प्रभावों को खत्म करने के लिए जरूरी है कि पुनः पारंपरिक कृषि पद्धतियों को अपनाया जाए। इन पारंपरिक तरीकों में मुख्य रूप से शामिल है जैविक खाद का प्रयोग जैविक खाद ना सिर्फ मिट्टी की उर्वरकता को बढ़ाती है, बल्कि मिट्टी के प्राकृतिक गुणों को दीर्घकालीन स्तर पर बनाए रखती है। इससे भूमि की उपयोगिता लंबे समय तक बनी रहती है। अतः जैविक खाद ना सिर्फ फसलों व पौधों के लिए उपयोगी है, बल्कि यह पर्यावरण व मिट्टी की मौलिकता को भी कायम रखने में सक्षम है।
'नीम से जैविक छिड़काव तैयार करने के लिए इनकी पत्तियों का एक घोल तैयार किया जाता है। घोल तैयार करने के लिए पत्तियों को पानी में करीब 12-15 घंटे के लिए डाल दिया जाता है। लंबे समय तक भीगे रहने के कारण पत्तियां जीवाणुओं से लड़ने वाले अपने गुण पानी में छोड़ देती है। इसी पानी को फिर फसलों व पेड़-पौधों में सिंचाई के लिए प्रयोग किया जाता है तथा इससे छिड़काव भी कर सकते हैं। नीम घुले इस पानी से इल्ली, टिड्डी, दीमक व अन्य कीट फसलों में नहीं लगते हैं।'
जैविक खाद क्या है? प्राकृतिक चीजों से तैयार की गई खाद को जैविक खाद कहते हैं। जैविक खाद इसलिए प्रयोग की जाती है ताकि फसलों व पेड़-पौधों के उसी स्वरूप में पोषक तत्व प्राप्त होते रहें, जिस प्रकार वे पर्यावरण या मिट्टी से हासिल करते हैं। जैविक खाद विभिन्न माध्यमों से तैयार की जा सकती है। इनमें मुख्य है गोबर खाद जो कि पशुओं के मल से प्राप्त होती है।
गाय, भैंस व बकरी के मल को सामान्यतः गोबर खाद के तौर पर अधिक प्रयोग में लिया जाता है। इसके अलावा कम्पोस्ट, वर्मीकम्पोस्ट से भी खाद तैयार की जाती है। खेतों में मौजूद फसलों के बचे हुए टूट भी मिट्टी में मिलने पर खाद का काम करते हैं।
'फर्टिलाइजर व रसायन से होने वाले इन दुष्प्रभावों को खत्म करने के लिए जरूरी है कि पुनः पारंपरिक कृषि पद्धतियों को अपनाया जाए। इन पारंपरिक तरीकों में मुख्य रूप से शामिल है जैविक खाद का प्रयोग जैविक खाद ना सिर्फ मिट्टी की उर्वरकता को बढ़ाती है, बल्कि मिट्टी के प्राकृतिक गुणों को दीर्घकालीन स्तर पर बनाए रखती है। इससे भूमि की उपयोगिता लंबे समय तक बनी रहती है। अतः जैविक खाद ना सिर्फ फसलों व पौधों के लिए उपयोगी है, बल्कि यह पर्यावरण व मिट्टी की मौलिकता को भी कायम रखने में सक्षम है ।'
जैविक खाद मिट्टी में मौजूद जैविक तत्वों की बढ़ोत्तरी करती है तथा इन्हीं जैविक तत्वों द्वारा पौधों को भोजन प्राप्त होता है। साथ ही यह जैविक अम्ल उत्पन्न करती है, जिससे मिट्टी में मौजूद पोषक तत्व घुल जाते हैं। मिट्टी में घुले हुए इन्हीं पोषक तत्वों पर पौधे जीवित रहते हैं। इसलिए पौधों के विकास के लिए जैविक खाद काफी फायदेमंद होती है। इसके अलावा जैविक खाद से मिट्टी में पानी को बांधे रखने की क्षमता में भी बढ़ोत्तरी होती है। अतः जैविक खाद पर ना सिर्फ पौधों का विकास निर्भर करता है, बल्कि मिट्टी की गुणवत्ता को भी यह बेहतर करती है।
विभिन्न प्रकार की जैविक खाद पौधों को अलग-अलग मात्रा में पोषक तत्व उपलब्ध करवाती है। औसत गुणवत्ता वाली गोबर की खाद से प्रति टन 12 किलो पोषक तत्व हासिल किए जा सकते हैं। जबकि कम्पोस्ट खाद द्वारा प्रति टन 40 किलो पोषक तत्व प्राप्त किए जाते हैं।
गोबर खाद बेहद आसानी से बनाई जा सकती है। इसे बनाने के लिए घर की गाय-भैंस का गोबर लिया जाता है तथा उसमें चारे का कचरा या घासफूस मिला दिया जाता है। यह खाद फसलों की बेहतर पैदावार के लिए सर्वश्रेष्ठ है।
कम्पोस्ट खाद एक प्रकार की जैविक खाद है जिसे बहुत सरलता से तैयार किया जाता है। यह खाद पशुओं के गोवर, पेड़-पौधों की सूखी पत्ती- टहनी, खेतों में फसलों के बाद का कचरा जैसे घासफूस, पुआल आदि को मिलाकर तैयार की जाती है। इसके अलावा घर की रसोई से निकलने वाले सब्जी के कचरे छिलके व झूठन आदि को भी इसमें प्रयोग किया जाता है । यानी इसमें तमाम तरह की जैविक चीजों का प्रयोग किया जाता है जो प्राकृतिक रूप से नष्ट हो सकती हैं। कम्पोस्ट खाद तैयार करने के लिए हमें केवल एक आयताकार या गोलाकार गड्ढा खोदना होता है जो 3 फुट चौड़ा और 1 फुट गहरा होता है। इसकी लंबाई जरूरत के अनुसार तय की जा सकती है। गड्ढा खोदने के बाद इसमें नियमित रूप से जैविक कचरा डालते रहें। गड्ढे के पूरा भर जाने पर उस पर मिट्टी से अच्छी तरह लेप करके उसे बंद कर दें। लेप सही प्रकार करें ताकि हवा गड्ढे के अंदर ना जा सके। लेप करने के बाद गड्ढे पर नियमित रूप से पानी का हल्का छिड़काव करते रहें। यह छिड़काव महीने भर तक करें। लगभग 2-3 माह के बाद गड्ढे में खाद तैयार हो जाएगी।
हरी खाद वह जैविक खाद है जिसे वनस्पतियों से तैयार किया जाता है। हरी खाद में सबसे फायदेमंद है नीम से बनी खाद नीम खाद को तैयार करने के लिए जरूरत है इसके फल व बीज की नीम के फल व बीज को दबाकर पहले उनका तेल निकाल लिया जाता है। तेल के निकल जाने के बाद पीछे बचा हुआ कचरा बतौर नीम खाद में इस्तेमाल किया जाता है। नीम खाद के प्रयोग से मिट्टी की जैविक गुणवत्ता व उसकी संरचना बेहतर होती है। इस खाद से मिट्टी के पानी को बांधे रखने की क्षमता में भी बढ़ोतरी होती है। मिट्टी की क्षारीयता भी इसके प्रयोग से नियंत्रित की जा सकती है। नीम खाद फसलों की पैदावार को बढ़ाने में भी मदद करती हैं। इसे सामान्यतः गोबर या यूरिया के साथ मिलाकर प्रयोग में लाया जाता है। नीम खाद को मिट्टी में सीधे भी मिलाया जा सकता है। यही नहीं इसके प्रयोग से मिट्टी में हवा की मौजूदगी बढ़ती है, जिससे पौधों की जड़ों का तेजी से विकास संभव हो पाता है। सामान्यतः गोबर खाद की तुलना में नीम खाद में नाइट्रोजन, पोटेशियम, कैल्शियम, फास्फोरस, मैग्नीशियम की अधिक मात्रा पाई जाती है। इसके अलावा इसमें गन्धक तत्वों की मात्रा अधिक होती है।
नाइट्रोजन पौधे के विकास में नाइट्रोजन सबसे अहम तत्व है। इसकी मौजूदगी में पौधे सूर्य की रोशनी से अपना भोजन बनाते हैं जिसे प्रकाश संश्लेषण कहते हैं। नाइट्रोजन की कमी से पौधे का विकास धीमा होता है।
पोटेशियम-पोटेशियम से पौधों में गर्मी, ठंड, सूखा, कीट-फफूंद आदि से लड़ने की प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है। पोटेशियम पत्तियों से पानी को उड़ने से रोकता है जिससे उनमें सूखे से लड़ने की क्षमता बढ़ती है।
कैल्शियम- कैल्शियम से मिट्टी का रासायनिक संतुलन बना रहता है, मिट्टी का खारापन कम होता है और पानी का मिट्टी में रिसाव बेहतर करता है।
फास्फोरस- फास्फोरस एक मुख्य पोषक तत्व है जो पौधों में सूर्य से प्राप्त ऊर्जा का प्रवाह व उसके भंडारण को सुनिश्चित करता है। इसकी मौजूदगी से जड़ों का विकास बेहतर होता है और फलों की गुणवत्ता बढ़ती है। यह जीवाणुओं से लड़ने में भी मदद करता है।
मैग्नीशियम- मैग्नीशियम भी - पौधों को भोजन बनाने में मदद करता हैं। साथ ही पौधों में अन्य विकास प्रक्रियाओं को बढ़ावा देता है।
नीम से खाद तैयार करने के अलावा इससे जैविक छिड़काव भी किया जा सकता है। नीम की पत्तियों में ऐसे तत्व मौजूद होते हैं जो जीवाणुओं से लड़ने की प्रतिरोधक क्षमता रखते हैं। इसी प्रतिरोधक क्षमता के कारण इन्हें फसलों को कीड़ें आदि से बचाने के लिए प्रयोग में लाया जाता है।
नीम से जैविक छिड़काव तैयार करने के लिए इनकी पत्तियों का एक घोल तैयार किया जाता है। घोल तैयार करने के लिए पत्तियों को पानी में करीब 12-15 घंटे के लिए डाल दिया जाता है। लंबे समय तक भीगे रहने के कारण पत्तियां जीवाणुओं से लड़ने वाले अपने गुण पानी में छोड़ देती है। इसी पानी को फिर फसलों व पेड़-पौधों में सिंचाई के लिए प्रयोग किया जाता है तथा इससे छिड़काव भी कर सकते हैं। नीम घुले इस पानी से इल्ली, टिड्डी, दीमक व अन्य कीट फसलों में नहीं लगते हैं।
नीम के पानी को तैयार करने के लिए सामान्यतः 5 लीटर पानी में 1 किलो हरी नीम पत्तियों की जरूरत होती है। अगर इस पानी को खेतों में देना है तो 6.25 बीघा भूमि के लिए 80 किलो पत्तियों की जरूरत पड़ेगी। नीम पत्तियों के उपयोग से भंडारित अनाज को भी कीड़ों व फफूंद से बचाया जा सकता है। इसके लिए नीम की सूखी पत्तियों को गेंहू, चावल या अन्य किसी भी अनाज के बीच में डाल दें। प्रभावी नतीजों के लिए हर 2-3 महीनों में पत्तियों को जरूर बदलते रहें।
नीम खाद नाइट्रोजन का सर्वश्रेष्ठ स्रोत है। यदि नीम खाद को फसलों में डाला जाए तो यह नाइट्रोजन की कमी को पूरा कर देता हैं नाइट्रोजन की कमी नीम खाद द्वारा पूरी होने से किसानों को फसलों में अधिक फर्टिलाइजर नहीं डालना पड़ता है।
सिल्वी पेस्चौर मॉडल के तहत गौचर भूमि में लगाई जा रही धामण घास व पौधारोपण के स्वस्थ विकास के लिए नीम की मदद ली जा सकती है। विकसित की जा रही गौचर भूमि पर निर्मित कच्चे टांको में ग्रामवासी नीम की पत्तियों को डाल सकते हैं। इससे टांके के पानी में जैविक गुण आ जाएंगे। इस पानी को घास व पौधों में डालने से कीड़े, फफूंद व दीमक नहीं लगेगी। यानी नीम की पत्तियों से जैविक छिड़काव तैयार हो जाएगा। इसके अलावा जब धामण के बीजों की बुवाई की जाए तो ट्रैक्टर के पीछे नीम की पत्तियों को बांध दें। इससे खेत में नीम की पत्तियों की बुआर लग जाएगी और पत्तियों के मिट्टी में मिलने से जीवाणुओं में कमी आएगी।
देश की 70 फीसदी आबादी गांवों में रहती है और कृषि पर ही निर्भर है।
बिहार में पिछले साल आई बाढ़ से भयंकर क्षति को देखते हुए आपदा प्रबंधन विभाग ने कृषि विभाग को 19 जिलों के किसानों के लिए कृषि इनपुट राशि के तहत 894 करोड़ रुपये दिये थे।
बिहार में पिछले साल आयी बाढ़ से भयंकर क्षति हुई थी. सबसे ज्यादा किसानों को त्रासदी झेलनी पड़ी थी...