स्वतंत्र भारत से पूर्व और स्वतंत्र भारत के पश्चात एक लम्बी अवधि व्यतीत होने के बाद भी भारतीय किसानों की दशा में सिर्फ 19-20 का ही अंतर दिखाई देता है। जिन अच्छे किसानों की बात की जाती है, उनकी गिनती उंगलियों पर की जा सकती है। बढ़ती आबादी, औद्योगीकरण एवं नगरीकरण के कारण कृषि योग्य क्षेत्रफल में निरंतर गिरावट आई है।
स्वतंत्र भारत से पूर्व और स्वतंत्र भारत के पश्चात एक लम्बी अवधि व्यतीत होने के बाद भी भारतीय किसानों की दशा में सिर्फ 19-20 का ही अंतर दिखाई देता है। जिन अच्छे किसानों की बात की जाती है, उनकी गिनती उंगलियों पर की जा सकती है। बढ़ती आबादी, औद्योगीकरण एवं नगरीकरण के कारण कृषि योग्य क्षेत्रफल में निरंतर गिरावट आई है।
जिस देश में 1.25 अरब के लगभग आबादी निवास करती है और देश की 70 प्रतिशत आबादी कृषि पर आधारित है, उस देश में कृषि शिक्षा के विश्वविद्यालय और कॉलेज नाम-मात्र के हैं, उनमें भी गुणवत्तापरक शिक्षा का अभाव है। भूमंडलीकरण के दौर में कृषि पर आधुनिक तकनीकी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के माध्यम से जो इस देश में आती हैं उसे कृषि का प्रचार-प्रसार तंत्र उन किसानों तक पहुंचाने में लाचार नजर आता है, यह गंभीर और विचारणीय विषय है। शिक्षा का ही दूसरा पहलू जिसे प्रबंधन शिक्षा की श्रेणी में रखा जा सकता है, नाम-मात्र भी नहीं है। राष्ट्रीय अथवा प्रदेश स्तर पर कृषि शिक्षा के जो विश्वविद्यालय हैं, उनमें शोध संस्थानों के अभाव में उच्चस्तरीय शोध समाप्त प्राय से हैं। चाहे संस्थानों का अभाव हो, वित्तीय एवं तकनीकी सुविधाओं का अभाव हो अथवा गुणवत्तापरक शिक्षकों का अभाव हो, जिसके कारण एक हरित क्रांति के बाद फिर कोई उल्लेखनीय कार्य नहीं हुआ। किसान ईश्वरीय कृपा पर ही आज भी निर्भर हैं। कृषि शिक्षा का व्यापक प्रचार-प्रसार ग्रामीण क्षेत्रों में होना चाहिए और प्रत्येक शिक्षण संस्थान में न्यूनतम माध्यमिक स्तर तक की शिक्षा अवश्य होनी चाहिए। उन लोगों का उपयोग कृषि के निचले स्तर के व्यापक प्रचार-प्रसार और उत्पादन वृद्धि में किया जाना चाहिए।
आजादी के बाद भी किसी प्रकार की भूमि एवं फसल प्रबंधन की बात देश के किसी कोने में दिखाई नहीं देती और तदर्थ आधार पर नीतियों और प्रबंधन का संचालन वे लोग करते हैं, जिन्हें इस क्षेत्र की कोई जानकारी नहीं होती। यदि राष्ट्रीय स्तर पर यह नीति बनाई जाए कि देश के अंदर विभिन्न जिंसों की कितनी खपत है और वह किस क्षेत्र में है, इसके अतिरिक्त भविष्य के लिए कितने भंडारण की आवश्यकता है? साथ ही, कितना हम निर्यात कर सकेंगे। जिंसवार उतने उत्पादन की व्यवस्था क्षेत्रीय आधार पर करनी चाहिए और संबंधित किसानों को इसकी शिक्षा दी जानी चाहिए। इसके अतिरिक्त जो भूमि अवशेष रहती है, उस पर ऐसे उत्पादों को बढ़ावा देना चाहिए जो किसानों के लिए व्यावसायिक सिद्ध हो तथा निर्यात की संभावनाओं को पूर्ण कर सकें और आयात को न्यूनतम कर सकें।
यहां यह भी देखना होगा कि जिन फसलों को हम बोना चाहते हैं, उनके लिए आवश्यक जलवायु, पानी, भूमि आदि कैसा होना चाहिए। इसका परीक्षण कर संबंधित किसानों को शिक्षित किया जाए ताकि वह सुझावानुसार कार्य करने के लिए सहमत हो। इस हेतु अच्छी प्रजाति के बीजों की व्यवस्था सुनिश्चित की जानी चाहिए और जो खेत या किसान चिन्हित किए जाएं, उन्हें ये बीज उपलब्ध कराए जाने चाहिए। फसल की बुवाई के समय कृषि क्षेत्र के तकनीकी विशेषज्ञ अपनी देखरेख में बुवाई कराएं तथा उन पर होने वाली बीमारियों, आवश्यक उर्वरकों, सिंचाई, निकाई, निराई, गुड़ाई आदि का कार्य आवश्यकतानुसार समय-समय पर कृषि विशेषज्ञों के निर्देशन में कराया जाए। इससे उत्पादन बढ़ेगा और किसान भी व्यावहारिक दृष्टि से प्रशिक्षित होंगे।
केन्द्र/राज्य सरकारों अथवा राज्यान्तर्गत गठित विभिन्न विकास प्राधिकरणों द्वारा भूमि अधिग्रहण की नीति में कृषि योग्य भूमि के मद्देनजर परिवर्तन किया जाना परमावश्यक है। औद्योगिक विकास, आधारभूत संरचना विकास व आवासीय योजनाओं हेतु ऐसी भूमि का अधिकरण किया जाना चाहिए जो कृषि योग्य नहीं है। ऊसर बंजर तथा जिसमें अत्यधिक कम फसल पैदावार होती है, ऐसी भूमि का अधिग्रहण हो। कृषि उपयोग में लाए जाने वाली भूमि का अधिग्रहण और उस पर निर्माण प्रतिबंधित कर देना चाहिए। आवासीय औद्योगिक एवं ढांचागत निर्माणों के लिए कृषि योग्य भूमि का अंधाधुंध अधिग्रहण किए जाने से कृषि योग्य भूमि अत्यधिक संकुचित होती चली जाएगी जो तीव्र गति से बढ़ती हुई जनसंख्या के भरण हेतु कृषि उत्पादन के लिए अक्षम होगी। यह भी आवश्यक है कि जिन किसानों की भूमि अधिगृहित की जाती है उसे वस्तुतः लीज पर लिया जाना चाहिए तथा मुआवजे के रूप में एकमुश्त भुगतान के आधार पर वार्षिक रूप से धनराशि लीज अवधि तक प्रदान की जानी चाहिए। साथ ही परियोजनाओं में हो रहे लाभ से भी लाभांवित किए जाने हेतु अधिगृहित भूमि पर विकसित प्रोजेक्ट में एक अंशधारक के रूप में किसानों को रखा जाए जिससे उन्हें प्रोजेक्ट के लाभ में नियमित भागीदारी मिलती रहे।
न्याय पंचायत अथवा ग्रामसभा स्तर पर एक कृषि केंद्र होना चाहिए जहां ग्रामीण कृषि क्षेत्र से संबंधित सभी कर्मचारी आवासीय सुविधाओं के साथ कार्यालय में कार्य कर सकें। यहां एक सहकारी समिति भी होनी चाहिए अथवा कृषि सहकारी समिति का विक्रय केंद्र होना चाहिए जिस पर कृषि मानकों के अनुसार बीज, उर्वरक, कीटनाशक आदि की व्यवस्था कराई जाए, जो किसानों को ऋण के रूप में उपलब्ध हो। साथ ही, ऐसे यंत्र/उपकरण जिनकी किसानों को थोड़े समय के लिए आवश्यकता पड़ती है, वह उपलब्ध रहने चाहिए और निर्धारित किराए पर उन्हें उपलब्ध कराया जाना चाहिए। जैसे- निकाई, निराई, गुड़ाई, बुवाई अथवा कीटनाशकों के छिड़काव से संबंधित यंत्र अथवा कीमती यंत्र जिन्हें किसान व्यक्तिगत आय से खरीदने में असमर्थ है, आदि संभव हैं तो ट्रैक्टर, थ्रेशर, कंबाइन हार्वेस्टर आदि की सुविधाएं भी किराए पर उपलब्ध होनी चाहिए ताकि लघु एवं सीमांत वर्ग के किसान बिना किसी बाधा के खेती कर सकें।
खेती में जो भी फसल बोई जाए, उस फसल को सहकारी समिति के माध्यम से बीमाकृत कराया जाए और सरकार की नीतियों में आवश्यकतानुसर परिवर्तन करके यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि जिस किसान की फसल को जिस तरह से भी क्षति हुई जैसे अतिवृष्टि, सूखा, ओलावृष्टि, आग, चोरी, बाढ़ या कोई अन्य कारण हो तो उस व्यक्ति को उसका क्लेम तत्काल दिया जाना चाहिए और क्लेम की राशि उसको दिए गए ऋण में समायोजित हो जिससे कि किसान अपनी 6 माह से पालन-पोषण करके तैयार की गई फसल की बर्बादी से गरीबी की ओर जाने से बच सके। वर्तमान व्यवस्था में शायद न्याय पंचायत स्तर पर 50 प्रतिशत से अधिक क्षति होने पर उस न्याय पंचायत के किसान को बीमा का लाभ मिलता है। यह नितांत ही अन्यायपूर्ण है। बीमा कराना ही पर्याप्त नहीं है बल्कि बीमा कंपनी की यह समीक्षा भी होनी चाहिए कि क्षेत्र के कितने किसानों को इससे लाभ हुआ है अथवा क्लेम मिले हैं। अधिकांश बीमा कंपनी बीमा करने के बाद इसकी खबर नहीं लेती और यदि कोई किसान संपर्क भी करता है तो उसे कानूनी दांव-पेंच में फंसाकर परेशान कर देती हैं जिससे वह इसके लाभ से वंचित रह जाता है। कृषि उपज प्रबंधन के लिए बीमा अति महत्वपूर्ण और उपयोगी है जिससे किसानों को ऋणग्रस्तता से बचाया जा सकता है।
विचारणीय विषय यह है कि किसान की फसल छः माह में तैयार होती है और उस फसल को तैयार करने के लिए आज भी किसान नंगे पांव जाड़ा, गर्मी, बरसात में खुले आकाश के नीचे रात-दिन परिश्रम करके फसल तैयार कर लेता है। खेतों में रात-दिन कार्य करते समय दुर्भाग्यवश यदि कोई जानवर काट लेता है या कोई दुश्मन उसकी हत्या कर देता है तो ऐसी दशा में उसका कोई बीमा आदि नहीं होता। ऐसे में उनके बच्चे सड़क पर आ जाते हैं, दिन-रात एक करके देश की सूरत बदलने वाला किसान और उसका परिवार न केवल भूखा सोने को मजबूर होता है बल्कि सदैव के लिए निराश्रित हो जाता है। अतः फसल बीमा के अतिरिक्त कृषक बीमा भी कराया जाना चाहिए।
किसानों को ऋण दिए जाने की व्यवस्था और सुविधाओं को मजबूत तथा उदार बनाने की आवश्यकता है। समय-समय पर केंद्र और राज्य सरकारों ने किसानों को ऋणमुक्त कराने के लिए ऋण माफी की अनेक योजनाएं घोषित की हैं जिस पर गंभीरतापूर्वक विचार करके निर्णय लिया गया होता तो किसानों की दुर्दशा शायद कम होती। ऋण माफी से निश्चित रूप से उन किसानों को लाभ हुआ है जो कभी अच्छे ऋण भुगतानकर्ता थे ही नहीं और उनमें यह प्रवृत्ति विकसित हुई कि ऋण की अदायगी करने से कोई लाभ नहीं है। किसी न किसी समय जब सरकार माफ करेगी तो इसका लाभ हमको मिलेगा। साथ ही, ऐसे किसान जो सदैव समय से ऋण अदायगी करते रहे हैं, वे इस ऋण माफी से स्वयं को ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं। उन्हें लगता है कि वे इससे धोखा खाए हैं। इसलिए उनमें भी यह आस्था विकसित हो रही है कि समय से कर्ज अदा करने से कोई लाभ नहीं है और जब बकायेदार सदस्यों का कुछ नहीं बिगड़ रहा तो हमारा क्या बिगड़ेगा। किसान किसी न किसी रूप में लगभग सभी वित्तीय संस्थाओं से ऋण प्राप्त करके आज बकायेदार हैं और बकायेदारों को ऋण न देने की नीति के कारण वह अब इन वित्तीय संस्थाओं से ऋण प्राप्त करने में असमर्थ हैं परंतु जब उसे अपने किसी अन्य कार्य, सामाजिक एवं पारिवारिक दायित्वों के निवर्हन हेतु किसी न किसी रूप में धन की आवश्यकता होती है तब वह बाध्य होकर उसी साहूकार के पास ऋण प्राप्ति के लिए जाता है जिससे मुक्ति दिलाने के लिए स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री से लेकर अब तक सभी प्रयासरत् रहे।
ये साहूकार 2 वर्ष पूर्व 5 रुपये प्रति सैकड़ा प्रति माह की दर से ब्याज पर किसान को ऋण दे देते थे जिसकी कोई गारंटी नहीं होती है, और न ही कोई अभिलेख मांगे जाते हैं बल्कि उसकी चल-अचल संपत्ति और उसकी सामाजिक प्रतिष्ठा को देखते हुए ऋण दिया जाता है। विगत माह ग्रामीण क्षेत्रों में भ्रमण के समय सामान्य व्यक्ति की हैसियत से वार्ता की गई तो स्थिति यह आई है कि अब साहूकार 8 रुपये से 10 रुपये तक प्रति सैकड़ा प्रति माह की दर से ब्याज ले रहे हैं जिससे किसान आकण्ठ ऋण में डूब रहे हैं। इतनी भारी ब्याज की रकम अदा करने के बाद एक बार लिए गए ऋण का मूल धन अदा करना किसान के बस की बात नहीं होती। अतः वह लोक-लाज को बचाने के लिए आत्महत्या तक कर लेते हैं। ऐसी स्थिति में वित्तीय संस्थाओं से लिए गए ऋण तो प्रकाश में आते हैं किंतु साहूकार द्वारा दिया गया ऋण कहीं भी उजागर नहीं होता।
यह विडंबना ही है कि इस ओर ध्यान नहीं दिया गया। साथ ही, वातावरण में यह नकारात्मकता विकसित कर दी गयी है कि ऋण अदायगी से कोई लाभ नहीं है तथा सरकारों द्वारा विभिन्न प्रकार से ऋण की अदायगी पर रोक लगने से किसानों को नुकसान हुआ है। इससे राष्ट्रीय स्तर पर साख व्यवस्था चरमरा गयी है। यह भी उल्लेखनीय है कि सुदूर ग्रामीण अंचलों में सहकारी समितियों की जो पकड़ आम आदमी तक है, वहां अन्य वित्तीय संस्थाओं की नहीं है। अनेक प्रयासों के बाद भी यह संस्थाएं वहां लघु एवं सीमांत कृषकों को छोटे ऋण देने से कतराती हैं। स्थानीय स्तर पर सहकारी समितियों के माध्यम से वितरित ऋण एवं अन्य कृषि सामग्री सरकार के निर्देशों के अंतर्गत सस्ती दरों पर बांटी गयी अथवा हानि पर दिए गए ऋणों की वसूली पर भी रोक लगाई गई जिसके कारण सहकारी समितियों की वित्तीय दुर्दशा देखने को मिलती है और इससे धीरे-धीरे पूरा सहकारी ढांचा न केवल चरमरा गया बल्कि समाप्ति की ओर है। ऐसी स्थिति में ग्रामीण क्षेत्रों की साख व्यवस्था पर ध्यान न देने के कारण वहां की दरिद्रता और बढ़ती गई। यदि सहकारी समितियों को स्वतंत्र रूप से उनके वास्तविक सदस्यों के द्वारा संचालित किया जाए, जो समिति के कष्ट को अपना कष्ट समझें तो निश्चित रूप से वह न केवल कृषि क्षेत्र में चमत्कारी कार्य कर सकेंगे बल्कि प्रजातंत्र की प्रथम सीढ़ी एवं प्रथम पीढ़ी के लोगों की राजनैतिक जागरूकता के लिए एक स्तंभ सिद्ध हो सकते हैं।
किसान क्रेडिट कार्ड की जो व्यवस्था की गई है, वह अच्छी तो है परंतु उसका व्यावहारिक पक्ष देखा नहीं गया है। जैसे कोई सहकारी समिति अपने कार्य क्षेत्र से बाहर ऋण नहीं दे सकती और उस समिति से ही धन एवं कृषि उपयोगी सामग्री प्राप्त होती है तब उसके किसान क्रेडिट कार्ड का कोई मतलब नहीं है। किसान के पास सहकारी समिति की पासबुक प्रारंभ से ही दी जाती है जिसमें उसका विवरण अंकित होता है। उसकी ऋण सीमा भी स्वीकृत की जाती है। उस ऋण सीमा के अंतर्गत वह नकद या वस्तु के रूप में ऋण प्राप्त कर सकता है।
साख व्यवस्था में भी किसान की आवश्यकताएं दो तरह की होती हैं- एक अल्पकालीन और दूसरी दीर्घकालीन। अल्पकालीन व्यवस्था के अंतर्गत सरकार का विशेष ध्यान रहता है परंतु दीर्घकालीन ऋणों में किसान की आवश्यकता पर विशेष ध्यान नहीं दिया जाता। दीर्घकालीन ऋणों की ब्याज दरें अल्पकालीन ऋण की तुलना में अधिक हैं। परियोजना आधारित ऋण वितरित किया जाता है। किसान की अन्य आवश्यकताओं के लिए ऋणों का कोई प्रावधान दीर्घकालीन व्यवस्था में नहीं है जिससे एक ही किसान को दोहरे मापदण्डों का सामना करना पड़ता है। इस व्यवस्था में बेहद सुधार की आवश्यकता है। परियोजना आधारित ऋण वितरण को समाप्त कर ऋण सीमा स्वीकृत करते हुए सस्ती ब्याज दरों पर ऋण तथा किसान क्रेडिट कार्ड उपलब्ध कराए जाने चाहिए।
विडंबना है कि जब भी कृषि उत्पाद बाजार में आता है तो उसके मूल्य निरंतर गिरने लगते हैं और मध्यस्थ सस्ती दरों पर उसका माल क्रय कर लेते हैं जिससे कृषि घाटे का व्यवसाय बना हुआ है। दुर्भाग्य है कि संबंधित लोग औद्योगिक क्षेत्रों के उत्पादन की दरें लागत, मांग और पूर्ति का ध्यान में रखते हुए निर्धारित करते हैं किंतु किसान की जिंसों का मूल्य या तो सरकार या क्रेता द्वारा निर्धारित किया जाता है उसमें भी तत्काल नष्ट होने वाले उत्पाद की बिक्री के समय किसान असहाय दिखाई देता है। ऐसी दशा में क्रय-विक्रय व्यवस्था को मजबूत और पारदर्शी बनाया जाना चाहिए और उसके उत्पाद का मूल्य भी मांग, पूर्ति और लागत के आधार पर किसान को निर्धारित कर लेने देना चाहिए। सर्वविदित है कि किसानों का कहीं उत्पाद इतना अच्छा और अधिक हो जाता है कि सड़ने लगता है और किसान उसे फेंकने को मजबूर हो जाता है और कभी-कभी उत्पाद इतना कम होता है कि उसे मध्यस्थ सस्ती दरों पर क्रय कर उच्च दरों पर बिक्री कर बीच का मुनाफा ले लेता है और किसान ठगा-सा रह जाता है।
उत्पाद मूल्य के व्यापक प्रचार-प्रसार के लिए सूचना विभाग भी जिम्मेदार है। आज भी किसान के पास कोई ऐसा तंत्र-मंत्र नहीं है जो यह तय कर सके कि उसके उत्पाद का उचित मूल्य आज किस बाजार में क्या है और भविष्य में मूल्य घटने-बढ़ने की क्या संभावनाएं हैं? जब वह अपने उत्पाद को मंडी में ले जाता है तब उसे उस दिन का भाव पता चलता है। उत्पाद को पुनः घर वापस लाने पर किराया-भाड़े का बोझ, परेशानी आदि को देख मजबूर होकर क्रेता के चुंगल में फंसता है और क्रेताओं का संगठित गिरोह उसके उत्पाद का मनमाने दामों में क्रय कर लेते हैं। इसलिए किसानों को उनके उत्पाद का उचित मूल्य मिलने के लिए उन्हीं के मध्य व्यक्तियों के माध्यम से कोई सम-सामयिक रणनीति बनाई जानी चाहिए। मंडी में गोदामों में सहकारी समितियों के माध्यम से यह व्यवस्था की जानी चाहिए कि यदि किसी दिन किसान को उसके उत्पाद का उचित मूल्य नहीं मिल पा रहा है तो उसके उत्पाद का भंडारण सहकारी क्रय-विक्रय समितियों के गोदामों में कर दिया जाए और उसके उस दिन के ताजा मूल्य का 50 से 80 प्रतिशत अग्रिम दे दिया जाए ताकि वह अपने घरेलू व सामाजिक कार्य को कर सके। जब बाजार मूल्य उच्च स्तर पर हो तो बिक्री कर समिति का किराया और लिए गए अग्रिम को वापस कर अपनी बचत पूंजी को अपने उपयोग में ला सके। यह अत्यंत गंभीर और विचारणीय विषय है। इससे लघु और सीमांत कृषकों की तात्कालिक आवश्यकताओं की पूर्ति और फसल के उचित मूल्य प्राप्त करने में सुविधा होगी।
(i) प्रक्रिया इकाइयों की स्थापना— सरकार को यह भी ध्यान देना चाहिए कि किसान का जो उत्पाद है, वह किस प्रकार का है और उसकी उपयोगिता क्या है। जैसे हर वर्ष हमारे देश में विभिन्न भागों में विभिन्न फसलें खेतों में ही नष्ट हो जाती हैं। एक क्षेत्र में आलू गोदामों में छोड़ देते हैं या मिट्टी में दबा देते हैं, लहसुन की उपज लागत न मिलने के कारण खेतों में दबा रहने देते हैं, आम जैसे अनेक फल सस्ती दरों पर बिक्री करने अथवा बिना मूल्य लिए वितरित करने के लिए किसान मजबूर होता है। कहीं-कहीं प्याज, केला, अंगूर और अनेक सब्जियां नष्ट हो जाती हैं जबकि देश के दूसरे भागों में इनकी आवश्यकता होते हुए भी महंगे परिवहन के कारण उपलब्धता सुनिश्चित नहीं करायी जा पाती है। जहां जिस क्षेत्र में किसी चीज का उत्पादन अधिक है, उन क्षेत्रों में उत्पाद से संबंधित प्रक्रिया इकाइयां लगाई जानी चाहिए जिससे उत्पाद को खराब होने से बचाया जा सके तथा उसका उचित मूल्य भी किसान को मिल सके। इस व्यवस्था का पूरे देश में नितांत अभाव है।
(ii) भंडारण व्यवस्था— किसान का ऐसा उत्पाद जो विभिन्न समितियों के माध्यम से क्रय किया जाता है, उसे किसी न किसी गोदाम में रखने की व्यवस्था अथवा निर्यात की व्यवस्था की जानी चाहिए। उस क्रय किए गए उत्पाद की ग्रेडिंग व्यवस्था भी होनी चाहिए ताकि कुल उत्पाद की मात्रा पर उसके ग्रेड के अनुरूप बिक्री मूल्य मिल सके।
ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि आधारित ऐसे उद्योग-धंधों की स्थापना की जानी चाहिए जिनमें न्यूनतम प्रशिक्षण से स्थानीय आबादी के व्यक्तियों को रोजगार मिल सके तथा किसानों के उत्पाद की उसमें खपत हो सके जैसे- फ्लोर मिल, राइस मिल, तेल कोल्हू, फलों से बनने वाले विभिन्न सामान, पापड़, बड़ियां, चिप्स एवं आचार आदि के उद्योग लगने चाहिए तथा उनको देश के दूसरे भागों में भेजने की व्यवस्था भी की जानी चाहिए। ग्रामीण बेरोजगारों को ग्रामीण क्षेत्र में रोजगार उपलब्ध कराने के लिए वहां के स्थानीय उत्पाद को ध्यान में रखते हुए लघु एवं कुटीर उद्योगों की स्थापना भी की जानी चाहिए।
व्यावसायिक बैंकों द्वारा अपनी ऋण नीतियां इस प्रकार नहीं बनाई गई थी जिससे कृषि एवं ग्रामीण क्षेत्रों को पर्याप्त ऋण सुविधाएं उपलब्ध हो सकें। अतः इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु इन क्षेत्रों में ग्रामीण बैंकों की स्थापना आवश्यक थी। इनकी ऋण नीतियां एवं ऋण योजनाएं निम्न हैं—
1. लघु एवं सीमांत कृषकों एवं कृषि श्रमिकों को ऋण।
2. अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति वर्ग के ग्रामीणों को ऋण।
3. ग्रामीण कारीगरों एवं लघु व्यवसायी को ऋण।
भारत सरकार के माध्यम से इन बैंकों द्वारा ग्रामीणों को अत्यधिक ऋण सुविधाएं प्रदान की जाती हैं, जो ग्रामीणों के लिए वरदान साबित हुई हैं। क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष दोनों प्रकार के ऋण प्रदान करते हैं।
इसके अंतर्गत लघु, सीमांत कृषक एवं कृषि श्रमिकों को ऋण प्रदान किए जाते हैं, जो निम्न हैं-
(अ) कृषि संबंधी ऋण— भारत सरकार द्वारा इन बैंकों के माध्यम से ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि संबंधी ऋण प्रदान किए जाते हैं जो ग्रामीण विकास की गति में तीव्रता प्रदान कर रहे हैं—
1. फसल ऋण
2. पान बाड़ी हेतु ऋण
3. डंगर बाड़ी हेतु ऋण
4. लघु सिंचाई योजना संबंधी ऋण
5. भूमि सुधार हेतु ऋण
6. बैल क्रय करने हेतु ऋण
7. गोबर गैस प्लांट लगाने हेतु ऋण
(ब) पशुपालन संबंधी ऋण— भारत सरकार द्वारा ग्रामीण क्षेत्रों को पशुपालन संबंधी ऋण सुविधाएं प्रदान की गई हैं ताकि ग्रामीण वर्ग अपनी आय में वृद्धि कर सके और पशुपालन का लाभ उठा सके। इसके लिए ग्रामीण बैंकों द्वारा विभिन्न ऋण योजनाएं प्रदान की गई हैं।
1. दुग्ध विकास हेतु पशु क्रय करने की योजना
2. बकरी पालन हेतु वित्तीय योजना
3. सूअर पालन हेतु वित्तीय सहायता
4. कुक्कुट पालन हेतु ऋण योजना
भारत सरकार सामान्यतः अप्रत्यक्ष कृषि ऋण सरकारी समितियों के माध्यम से प्रदान करती है। वर्तमान में विभिन्न बैंक समितियों के माध्यम से समस्त वर्गों को ऋण प्रदान कर रहे हैं जो निम्न हैं—
1. ग्रामीण कारीगरों को ऋण
2. ग्रामीण क्षेत्रों के चर्मशोधकों व चर्मकारों हेतु वित्तीय सहायता
3. बांस की टोकरी बनाने के लिए ऋण योजना
4. दर्जियों को सिलाई मशीन हेतु वित्तीय सहायता
(स) ग्रामीण लघु व्यावसायियों को ऋण सहायता— सरकार द्वारा ग्रामीण अंचलों में रहने वाले व्यावसायियों अथवा नए सिरे से अपना व्यवसाय प्रारंभ करने वाले व्यक्तियों को बैंकों द्वारा निम्नलिखित शीर्षकों के अंतर्गत ऋण प्रदान किया जाता है—
1. नौका क्रय हेतु नाविकों को ऋण
2. होटल/पान दुकान हेतु ऋण
3. हाथ-ठेला या रिक्शा क्रय हेतु ऋण
4. सब्जी के व्यवसाय हेतु ऋण
5. कपड़े के व्यवसाय हेतु ऋण
6. उचित मूल्य के अनाज व किराना दुकान हेतु ऋण
7. आटा-चक्की व्यवसाय हेतु ऋण
8. फलों के बगीचे हेतु ऋण
9. शासकीय सस्ते अनाज की दुकान हेतु ऋण
(द) अन्य ऋण योजनाएं
1. उपभोग ऋण
2. जमा राशियों एवं आभूषणों पर ऋण
3. वाहन क्रय हेतु ऋण
4. ग्रामीण खाद व्यापार योजना
5. ग्राम गोद लेने की योजना
6. वेयर हाउस रसीद पर ऋण
7. किसान क्रेडिट कार्ड योजना
8. व्यक्तिगत दुर्घटना बीमा योजना।
देश की 70 फीसदी आबादी गांवों में रहती है और कृषि पर ही निर्भर है।
बिहार में पिछले साल आई बाढ़ से भयंकर क्षति को देखते हुए आपदा प्रबंधन विभाग ने कृषि विभाग को 19 जिलों के किसानों के लिए कृषि इनपुट राशि के तहत 894 करोड़ रुपये दिये थे।
बिहार में पिछले साल आयी बाढ़ से भयंकर क्षति हुई थी. सबसे ज्यादा किसानों को त्रासदी झेलनी पड़ी थी...