भारत में खाद और बीज को लेकर किसानों के अधिकार लंबे समय से चिंता का विषय रहे हैं। कृषि क्षेत्र देश की अर्थव्यवस्था में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, और यह सुनिश्चित करना आवश्यक है
भारत में खाद और बीज को लेकर किसानों के अधिकार लंबे समय से चिंता का विषय रहे हैं। कृषि क्षेत्र देश की अर्थव्यवस्था में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, और यह सुनिश्चित करना आवश्यक है कि जब इन महत्वपूर्ण आदानों की बात आती है तो किसानों को आवश्यक अधिकार और सुरक्षा मिले।
किसानों के अधिकारों का एक प्रमुख पहलू गुणवत्तापूर्ण उर्वरकों तक पहुंच है। किसानों को ऐसे उर्वरकों तक पहुंचने का अधिकार होना चाहिए जो सुरक्षित, प्रभावी हों और उनकी विशिष्ट जरूरतों को पूरा करते हों। इसमें उर्वरकों की संरचना और उचित उपयोग के बारे में सटीक जानकारी तक पहुंच शामिल है।
इसी तरह, किसानों को भी उच्च गुणवत्ता वाले बीज प्राप्त करने का अधिकार होना चाहिए। बीज कृषि की नींव हैं, और किसानों के लिए विभिन्न बीज किस्मों तक पहुंच होना आवश्यक है जो उनकी विशिष्ट कृषि-जलवायु परिस्थितियों के लिए उपयुक्त हों। इसके अतिरिक्त, उन्हें कानूनी प्रतिबंधों का सामना किए बिना पारंपरिक बीजों को बचाने और आदान-प्रदान करने में सक्षम होना चाहिए।
देश की राजनीति और अर्थव्यवस्था किसानों के बिना अधूरी-सी है। किसानों को लुभाने के प्रयास राजनीतिक स्तर पर तो खूब किए जाते हैं, लेकिन अहम सवाल यह भी है कि इसके बावजूद किसानों की हालत बहुत अच्छी क्यों नहीं है। क्यों देश के अलग-अलग कोनों से किसानों की आत्महत्या की खबरें आती रहती हैं।
किसानों के बीच जाकर बैठते ही उनकी निराशा समझ में आती है। वे तमाम गणितों से दूर होकर एक ही बात कहते हैं कि पहले जैसी बात न रही। अब बीज खरीदने पड़ते हैं और खाद भी बहुत लगता है। जमीन को उत्पादन मशीन बनाकर उससे ज्यादा पैदा करने के फेर में वह कर्ज लेता है और आशानुरूप उत्पादन न होने पर जीवन खत्म करने जैसे फैसले भी ले लेता है। एक जमाने में किसान के पास पर्याप्त मात्रा में बीज का भंडार होता था, जिससे वह अपने खेत के बीज से नई फसल उगा लिया करता था। रासायनिक खाद की जगह वह गोबर खाद का इस्तेमाल करता था। इसके लिए पशु पाले जाते थे।
लेकिन समय बदला और खेती-किसानी भी बदल गई। गोबर खाद की जगह रासायनिक खाद आ गए और देसी बीजों का स्थान संकर और नए बीजों ने ले लिया। खेती के तमाम तौर-तरीकों के बदलने के बावजूद किसान की हालत नहीं बदली। अधिक उपज के लालच में किसान अपने बीज उगाने के अधिकार से वंचित होता जा रहा है। पहले वह फसल के समय ही अगली बार के लिए बीज बचा लिया करता था, लेकिन अब उसे नया बीज खरीदने के लिए कर्ज लेना पड़ता है।
रासायनिक खाद के स्थान पर गोबर और केंचुए खाद का प्रयोग करना किसान ने कम कर दिया और बेटी की शादी से ज्यादा चिंता उसे इस बात की सताने लगी कि कितने बोरे खाद लाने हैं। अब जब बीज विधेयक को लेकर देश भर में बहस छिड़ी है, तब यह भी ध्यान देना होगा कि किसान क्या चाहता है। नए बीज से उत्पादन जरूर बढ़ेगा, लेकिन हर साल जो लाखों टन गेहूं सड़ जाता है, उसका क्या होगा।
कोल्ड स्टोरेज की कमी के कारण किसान आलू की फसल यों ही छोड़ देता है। ऐसे में वह ज्यादा उत्पादन का करेगा क्या? नालन्दा के नगर नौसा में रमेश साह जैसे किसान हैं, जो अब इस जिद पर आ गए हैं कि खुद को बचाना है, तो पुराने ढंग की जैविक खेती की ओर बढ़ना होगा। अपना बीज और अपनी खाद हो, तो किसान के लिए इससे बड़ी खुद्दारी कोई हो नहीं सकती।
रमेश साह ही क्यों, इसी जिले के सरमेरा गांव के विनोद कुमार ने छोटा-सा प्रयास किया है कि जैविक खेती के सहारे अपनी जमीन को बंजर होने से बचाया जाए। बीज विधेयक लाने के पक्ष में कई तर्क हो सकते हैं, पर किसान के मुंह से यही निकलता है कि अब तो बीज भी हमारा न रहा।
संकर बीजों का बढ़ता चलन और रासायनिक खादों पर निर्भरता किसान से उसका बीज उत्पादन करने के हक और जमीन की उर्वरता को पूरी तरह खत्म कर देगी। भाकियू के राकेश टिकैत सहित अनेक किसान नेता बीज विधेयक का विरोध कर चुके हैं। यह संभव है कि आम किसान को इस विधेयक की तकनीकी पेचीदगियों के बारे में पता न हो, लेकिन वह अपना हक चाहता है।
नालन्दा जिले के रमेश साह और विनोद कुमार जैसे ऐसे कई और किसान हैं, जो जैविक खेती के सहारे जमीन को अपनी मां की तरह सहेजने का कार्य कर रहे हैं। नीतियां सरकारें बनाती हैं। दावा भी किया जाता है कि इससे सभी को फायदा होगा, पर यही ढर्रा रहा, तो बीज उत्पादन करने वाला किसान बीज खरीदने वाला उपभोक्ता बन जाएगा।
रासायनिक खादों के कारण जमीन बंजर हो जाएगी। अब भी देर नहीं हुई है। नालन्दा के अलग-अलग गांवों में जैविक खेती के पक्ष में चल रहे अभियान को पूरे देश में ले जाना होगा। किसान को यह समझाना होगा कि ज्यादा लागत लगाकर कम मुनाफा कमाने से तो कहीं अच्छा है कि वह कम लागत रखे और ज्यादा बचत के तरीके अपनाए। जान की बाजी लगाकर मुनाफा कमाने का चलन रहा, तो किसानों की आत्महत्या नहीं रुकेगी।
देश की 70 फीसदी आबादी गांवों में रहती है और कृषि पर ही निर्भर है।
बिहार में पिछले साल आई बाढ़ से भयंकर क्षति को देखते हुए आपदा प्रबंधन विभाग ने कृषि विभाग को 19 जिलों के किसानों के लिए कृषि इनपुट राशि के तहत 894 करोड़ रुपये दिये थे।
बिहार में पिछले साल आयी बाढ़ से भयंकर क्षति हुई थी. सबसे ज्यादा किसानों को त्रासदी झेलनी पड़ी थी...