भारतीय कृषि के संदर्भ में किसानों की आत्महत्या और खेती को छोड़ने की इच्छा खेती पर मंडरा रहे संकट का स्याह पहलू है, तो कृषि क्षेत्र के लिए मोदी सरकार का क्या एजेंडा होना चाहिए? किसानों को बदहाली के दलदल से निकालने के लिए मोदी को क्या रणनीतियां और तरीके अपनाने चाहिए|
किसानों के भी तो अच्छे दिन आने चाहिए.....
भारतीय कृषि के संदर्भ में किसानों की आत्महत्या और खेती को छोड़ने की इच्छा खेती पर मंडरा रहे संकट का स्याह पहलू है, तो कृषि क्षेत्र के लिए मोदी सरकार का क्या एजेंडा होना चाहिए? किसानों को बदहाली के दलदल से निकालने के लिए मोदी सरकार को क्या रणनीतियां और तरीके अपनाने चाहिए।
कृषि क्षेत्र भीषण संकट का सामना कर रहा है। बुनियादी तौर पर यह संकट आर्थिक रूप से व्यावहारिकता और टिकाऊपन से जुड़ा है। संकट कितना गंभीर है, इसका अंदाजा किसानों द्वारा आत्महत्या करने की घटनाओं से लगाया जा सकता है। बीते 17 सालों में कर्ज के बोझ से घबरा कर तीन लाख किसानों ने मौत को गले लगा लिया। किसानों का 42 प्रतिशत हिस्सा कोई विकल्प मिले तो खेती को छोड़ने को तैयार है। किसानों की आत्महत्या और खेती को छोड़ने की इच्छा इस गंभीर संकट का स्याह पहलू है। अब जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी बीते 10 सालों के दौरान जवान और किसान के संकट के लिए यूपीए सरकार को दोषी ठहराते हैं, तो संकट में घिरे किसान समुदाय को आशा की किरण दिखा रहे होते हैं। आखिर, किसानों के भी तो अच्छे दिन आने चाहिए। तो कृषि क्षेत्र के लिए नई सरकार का क्या एजेंडा होना चाहिए? किसानों को बदहाली के दलदल से निकालने के लिए मोदी को क्या रणनीतियां और तरीके अपनाने चाहिए? इस हकीकत को बखूबी जानते हुए कि भारत खाद्य सुरक्षा के लक्ष्य से समझौता नहीं कर सकता, आवश्यक है कि दीर्घकालिक और लघुकालिक उपाय किए जाएं। मुझसे यह प्रश्न कई बार किया जा चुका है।
यहां इस संदर्भ में म्यारह सूत्री एजेंडा सुझा कर रहा हूँ
1) किसानों को निश्चित मासिक आय सुनिश्चित कराने की गारंटी दी जाए अर्जुन सेनगुप्ता समिति की रिपोर्ट के मुताबिक, किसान परिवार की औसतन मासिक आय 2, 115 रुपये बैठती है। इसमें कृषि इतर कायरे से प्राप्त 900 रुपये भी शामिल हैं। लगभग 60 प्रतिशत किसान आजीविका के लिए मनरेगा गतिविधियों पर निर्भर करते हैं और एक अनुमान के मुताबिक, कोई 55 प्रतिशत किसान भूखे ही सो जाने को मजबूर हैं। ये वही किसान है, जो कृषि उपज उद्यानिकी उत्पाद तथा डेयरी उत्पाद मुहैया करा कर देश की आर्थिक समृद्धि में योगदान करते हैं। समय आ गया है कि खाद्य के रूप में देश में बेतहाशा आर्थिक समृद्धि लाने वाले किसानों को समुचित प्रतिफल मुहैया कराया जाए। मेरा सुझाव है कि नई सरकार को राष्ट्रीय किसान आय आयोग की स्थापना करनी चाहिए। आयोग किसान परिवार द्वारा किए गए कृषि उत्पादन और खेत की भोगोलिक अवस्थिति के आधार पर किसान परिवार की मासिक आय की गणना करे।
2) मूल्य नीति का अब कोई अर्थ नहीं रह गया है। जब भी न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) बढ़ाया जाता है, सवाल पूछे जाने लगते हैं कि खाने-पीने की चीजों पर इसका क्या असर पड़ेगा? यही नहीं, डब्ल्यूटीओ की बाली मिनिस्ट्रल ने तो भारत द्वारा एमएसपी के जरिए किसानों को मुहैया कराई जाने वाली सब्सिडी तक पर सवाल उठा दिया है। इसलिए समय आ गया है कि मूल्य नीति से आय नीति की ओर बढ़ा जाए। किसान जो आय अर्जित करता है, उसका उपज के बाजार में मिल रहे मूल्य से कुछ लेना-देना नहीं होना चाहिए। यही कारण है कि में किसानों के लिए नियत मासिक आय गारंटी की बात कहता रहा है। यह नहीं भूलें कि मुद्रास्फीति बढ़ रही है तो यह किसानों के लिए भी बढ़ रही है। जहां सरकारी कर्मचारियों को बढ़ते दामों का सामना करने के लिए हर छह महीने पर डीए की किश्तों का भुगतान कर दिया जाता है और कुछ वर्षों के अंतराल पर लगातार आयोग गठित कर दिया जाता है, वहीं किसानों को मिलता है। मात्र एमएसपी वह भी अलाभकारी। केरल में एक रोचक अध्ययन किया गया। गणना की गई कि सरकारी अधिकारियों के वेतन में की गई बढ़ोतरी के बरक्स क्या धान का मूल्य भी बढ़ा? पाया गया कि 2005 में धान का मूल्य 2669 रुपये प्रति किंटल होना चाहिए था आज भी यह 1.310 रुपये है। कह सकते हैं कि 2014 में जो मूल्य धान किसानों को मिल रहा है, वह उस मूल्य का पचास प्रतिशत ही है, जो उन्हें 9 साल पहले मिलना चाहिए था।
3) देश भर में किसानों को उनकी उपज बेचने का मंच मुहैया कराने वाली मंडियों के संजाल को तत्काल मजबूत किए जाने की सख्त जरूरत है। अगर इसे बाजार के सहारे छोड़ दिया गया तो ओन पौने में किसानों की उपज खरीदी जाएगी। यह बात समझने के लिए हम पंजाब और बिहार के धान किसानों की बात करते हैं। पंजाब, जहां सड़कों से जुड़ीं मंडियों का बड़ा नेटवर्क है, में किसान अपनी उपज को मंडियों में लाते हैं। कटाई के पिछले सीजन में वहां के किसानों को धान के लिए 1,310 रुपये प्रति किंटल का एमएसपी मिला बिहार, जहां एपीएमसी एक्ट लागू नहीं है. में किसानों को हड़बड़ी में अपनी उपज बेचनी पड़ी। उन्हें अपने धान का दाम प्रति किंटल 900 रुपये ही मिल पाया। अब कृषि मूल्य एवं लागत आयोग (सीएसीपी) पंजाब सरकार पर दबाव बना रहा है कि मंडियों को समाप्त किया जाए और खुले बाजारों को खरीद करने दी जाए। इस अर्थ हुआ कि पंजाब के किसानों की हालत भी जल्द ही बिहार के किसानों की तरह ही होने वाली है।
4) एक ऐसा देश जिसने सर्वाधिक जल्द खराब होने वाले उत्पाददूध के लिए एक बेहतरीन विपणन तंत्र तैयार करने में कामयाबी हासिल की है, आखिर क्यों इसी प्रकार से फल-सब्जियों के लिए भी इतना ही व्यावहारिक नेटवर्क नहीं बना सकता। जब राष्ट्रीय डेयरी डवलपमेंट बोर्ड हर गांव हर घर से दूध का एकत्रीकरण और सहकारी श्रृंखला के जरिए शहरी उपभोक्ताओं को इसकी आपूतर सुनिश्चित कर सकता है, तो मुझे कोई कारण नजर नहीं आता कि फल, सब्जियों और अन्य कृषि जिंसों के मामले में भी ऐसा न किया जा सके।
5) सहकारी खेती को बढ़ावा दिए जाने की जरूरत है। सहकारी संस्थाओं को ज्यादा स्वायत्त और प्रभावी बनाने की गरज से समुचित कानून बनाने होंगे। डेयरी उद्योग में अमूल के अनुभव से लाभ उठाते हुए इसी प्रकार की पप्पाती फला सब्जियों की काश्त में भी अपनानी होगी। मुझे जैविक खेती करने वाले किसानों की छोटी सहकारी संस्थाओं की जानकारी है, जिन्होंने अचंभे में डाल देने वाले नतीजे हासिल कर दिखाए हैं तो बाकी की फसल के मामलों में भी ऐसा
क्यों नहीं किया जा सकता?
6) खेती और खाद्य सुरक्षा के मामले में गांवों को अपने तई आत्मनिर्भर बनाने के प्रयास होने चाहिए। आबादी के लिए खाद्य की उपलब्धि को खेती से जोड़ा जाना चाहिए। छत्तीसगढ़ खेती और खाद्य सुरक्षा को लेकर गांवों की अपने स्तर पर आत्मनिर्भता का एक बेहतरीन उदाहरण है। यहां स्थानीय उत्पादन, उपज की स्थानीय स्तर पर खरीद तथा स्थानीय स्तर पर वितरण पर ध्यान केंद्रित कर दिया गया है। समूचे देश के लिए भी ऐसा ही किए जाने की जरूरत है। इसके लिए राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम में कुछ संशोधन करना होगा। पांच किलो ग्राम गेहूं/चावल / ज्वार बाजरा मुहैया कराने के स्थान पर गांवों को अपने स्तर पर ही अपनी खाद्य जरूरतों को पूरा करने के हालात पैदा किए जाने चाहिए। इससे खाद्य सुरक्षा के लिए हर साल दी जाने वाली भारी सब्सिडी के पैसे की बचत हो सकेगी और इस प्रकार राजकोषीय घाटे को कम करने में भी सहायता मिलेगी।
7) देश के वे इलाके जहां हरित क्रांति आई थी. आज लाभकारी कृषि उपज न होने के संकट से दो-चार हैं। भूमि की उर्वरता नष्ट हो गई है। भूजल का स्तर नीचे गिर गया है। रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के उपयोग से पर्यावरण प्रदूषित हो गया है। नतीजतन समूची खाद्य श्रृंखला और मानव स्वास्थ्य को हर दिन खतरा बढ़ रहा है। नई सरकार को इस दिशा में प्रयास करने चाहिए। देश भर में अभियान चला कर किसानों को गैर- कीटनाशक कृषि प्रबंधन तकनीक अपनाने को प्रेरित किया जाए। आंध्र प्रदेश में 35 लाख हेक्टेयर कृषि भूमि में कोई रासायनिक कीटनाशक इस्तेमाल नहीं किया जा रहा। कोई 20 लाख हेक्टेयर भूमि पर किसानों ने रासायनिक उर्वरकों का इस्तेमाल करना तक बंद कर दिया। इसके बाद से कृषि उत्पादन बढ़ गया है। कीटनाशकों से होने वाला प्रदूषण भी कम हो गया कीटों के हमले कम हो गए हैं, और महत्त्वपूर्ण बात यह कि स्वास्थ्य संबंधी खर्चे घटने से किसानों की आय में 45 प्रतिशत तक का इजाफा दर्ज किया गया। इन इलाकों में किसानों द्वारा आत्महत्या करने के मामले भी प्रकाश में नहीं आए हैं। इसी प्रकार की पणाली समूचे देश में स्थानीय जरूरतों/तकाजों के मद्देनजर लागू की जानी चाहिए।
कृषि, डेयरी और वानिकी को समेकित किया जाना चाहिए। कृषि में वृद्धि को मात्र खाद्यान्न उत्पादन के नजरिए से ही नहीं देखा जाना चाहिए बल्कि गांव की समूची पारिस्थतिकी को ध्यान में रख कर मापा जाना चाहिए।
9) खाद्य पदार्थों के आयात का अर्थ बेरोजगारी को आयात करना ही है। हाल के समय में हिमाचल प्रदेश के सेब उत्पादक आयातित सेबों पर कम आयात शुल्क रखे जाने के खिलाफ विरोध जताते रहे हैं, क्योंकि इससे वे तबाही के कगार पर पहुंच जाएंगे। अब हिमाचली सेबों को कोई खरीदार नहीं रहा। इनके दाम खासे गिर चुके हैं। यही हालत अन्य फसलों की भी है। सरकार को कृषि, उद्यानिकी और डेयरी उत्पादों पर आयात शुल्क बढ़ाना चाहिए। मुक्त व्यापार समझौते के प्रावधानों के तहत बनने वाले दबावों के समक्ष घुटने नहीं टेक देने चाहिए। भारत को यूरोपीय संघ की इस मांग के समक्ष नहीं झुकना चाहिए कि उसके डेयरी उत्पादों और फल सब्जियों के लिए भारत अपने बाजार खोले तथा इन उत्पादों के आयात पर शुल्कों को कम करे। अध्ययनों से स्पष्ट हो चुका है कि मुक्त व्यापार समझौतों और द्विपक्षीय समझौतों पर हस्ताक्षर किए जाने से देश को नुकसान हुआ है। समय आ गया है कि व्यापार संधियों पर फिर से विचार किया जाए और घरेलू कृषि का संरक्षण करते हुए देश के करोड़ों लोगों की आजीविका को बचाया जाए।
10) जलवायु परिवर्तन पक्के तौर पर खेती को प्रभावित करेगा। लेकिन कृषि पर इसके असर को कम से कम करने की रणनीतियों पर गौर करने से काम नहीं चलेगा। न ही इस बात से कुछ हासिल होगा कि किसानों को जलवायु में बदलाव से तालमेल बैठाने के लिए तैयार किया जाए। जरूरत इस बात की है कि कृषि से ग्रीनहाउस गैस के उत्सर्जन को सीमित किया जाए। कृषि से ग्रीनहाउस गैस का करीब 25 प्रतिशत उत्सर्जन होने संबंधी तथ्य पर ध्यान देते हुए रासायनिक उर्वरकों/ कीटनाशकों के कम से कम उपयोग पर हमारा बल होना चाहिए। गैर-कीटनाशक प्रबंधन के आंध्र प्रदेश मॉडल का अनुसरण किया जाना उचित कदम होगा। साथ ही, फसल लेने के है में भी बदलाव किया जाना चाहिए। जैसे कि देश के सूखा प्रभावित क्षेत्रों में अभी जो हाइब्रिड फसलें ली जा रही हैं, उनके लिए सामान्य फसलों के मुकाबले दो गुणा पानी की दरकार होती है। कहना न होगा कि वर्ष-आश्रित क्षेत्रों, जो खेती करने योग्य भूमि का 65 प्रतिशत हिस्सा है, में उन फसलों को उगाया जाना चाहिए जिनके लिए कम पानी की जरूरत पड़ती है। लेकिन यह वास्तविकता के विपरीत है। इसलिए कि इन इलाकों में वर्षा में विलंब होने की स्थिति में पानी का संकट पैदा हो जाता है। मुझे इस बात में कोई तुक नजर नहीं आती कि राजस्थान, जो अर्ध शुष्क क्षेत्र है, में ईख, कपास या चावल जैसी ज्यादा पानी की जरूरत वाली फसलें बोई जाए इसी प्रकार मुझे यह भी बेतुका लगता है कि बुंदेलखंड क्षेत्र में मेथा जैसी फसल बोई जाए जिसमें एक किग्रा. मेंथा तेल का उत्पादन करने के लिए 1.35 लाख लीटर पानी की जरूरत होती है राजस्थान और मध्य प्रदेश में फसल लेने के तौर-तरीकों को बदल कर क्यों न दालों, तिलहनों (जैसे सरसों) और ज्वार बाजरा जैसी फसलें उगाई जाएं। इस प्रकार से फसलों को बदलने के इच्छुक किसानों को उपज के ऊंचे दाम देकर सरकार विशेष प्रोत्साहन क्यों नहीं देती। इस प्रकार का लाभकारी तरीका अपनाने वाले किसान वास्तव में प्रोत्साहन के हकदार हैं।
11) देश में भंडारण सुविधाओं की कमी घबरा देने वाली है। सरकार ने 1979 में खाद्य बचाओ अभियान के तहत देश भर में पचास स्थानों पर खाद्यान्न के गोदामों का निर्माण करने का आश्वासन दिया था। नई सरकार के एजेंडा पर खाद्यान्न गोदामों का निर्माण सर्वोच्च स्थान पर रहना चाहिए। एक दाना तक नष्ट नहीं होने दिया जाना चाहिए।
देश की 70 फीसदी आबादी गांवों में रहती है और कृषि पर ही निर्भर है।
बिहार में पिछले साल आई बाढ़ से भयंकर क्षति को देखते हुए आपदा प्रबंधन विभाग ने कृषि विभाग को 19 जिलों के किसानों के लिए कृषि इनपुट राशि के तहत 894 करोड़ रुपये दिये थे।
बिहार में पिछले साल आयी बाढ़ से भयंकर क्षति हुई थी. सबसे ज्यादा किसानों को त्रासदी झेलनी पड़ी थी...